गैर-कृषि कार्य के लिए अधिग्रहीत की गई जमीन के लिए किसानों को दिए जाने वाले मुआवजे का मामला एक बार फिर चर्चा में है। इस बार यह मामला उत्तर प्रदेश में नोएडा-आगरा एक्सप्रेसवे का है। सड़क परियोजना और सहायक परियोजनाओं पर रकम झोंक चुकेनिवेशक घबराहट के साथ राज्य सरकार व किसानों के बीच चल रहे गतिरोध के नतीजे का इंतजार कर रहे हैं और कांग्रेस समेत विपक्षी राजनीतिक पार्टियां अशांत क्षेत्रों में मुद्दे को उभार रही हैं।
पश्चिम बंगाल के सिंगुर और लालगढ़ में हुई हिंसा की घटनाओं ने देश भर में किसानों की जागरूकता में इजाफा किया है। हिंसक विरोध के जरिए सिंगुर के जमीन मालिकों ने जमीन का हस्तांतरण रोक दिया था। लालगढ़ में विरोध के कारण अधिग्रहण रुक गया। किसानों की तथाकथित जीत के बाद सिंगुर के किसानों के पास जमीन नहीं बची और लालगढ़ के किसान भी मौद्रिक रूप से बेहतर स्थिति में नहीं हैं।
दूसरी ओर, नोएडा-आगरा एक्सप्रेसवे के लिए जमीन अधिग्रहण का विरोध करने वाले किसानों ने स्पष्ट तौर पर कहा है कि अगर उन्हें ज्यादा मुआवजा मिले तो वे अपनी जमीन त्याग सकते हैं। ऐसे में समाधान संभव है। संघर्षरत किसान उतना ही मुआवजा चाहते हैं जितने की राज्य के दूसरे हिस्से में किसानों के सामने पेशकश रखी गई है। राजनीतिक पार्टियों ने किसानों के मुद्दे उठाने और उनकी इच्छा के मुताबिक मुआवजा दिलाने का वादा किया है।
यदि वे कामयाब होते हैं तो यह निश्चित रूप से मौजूदा सरकार के लिए खराब होगा। या तो इससे सरकारी खजाने को अपूरणीय क्षति होगी या किसानों के बीच संदेश जाएगा कि अधिग्रहीत जमीन के बदले सरकार किसानों को सही कीमत नहीं देती। कुछ पार्टियों ने संकेत दिया है कि ऐसे अधिग्रहण के जरिए राज्य रकम बना रहा है क्योंकि इस जमीन को वह निजी डेवलपर्स को कई गुना ज्यादा कीमत पर हस्तांतरण करता है।
ये डेवलपर एक्सप्रेसवे के किनारे योजना के मुताबिक टाउनशिप का विकास करेंगे। चूंकि डेवलपर वह कीमत चुकाने को तैयार हैं तो इसका मतलब यह है कि उस जमीन की बाजार कीमत निश्चित रूप से ज्यादा है जो कि किसानों को मिल रही है, निश्चित तौर पर राज्य बुनियादी ढांचे के विकास के लिए रकम इकट्ठा कर रहा है, जिससे जमीन की कीमत में इजाफा होगा।
समस्या यह है कि जमीन अधिग्रहण की प्रक्रिया हमेशा से रहस्यमय रही है। कोई भी सरकार यह नहीं बताती कि इस जमीन का अधिग्रहण क्यों हो रहा है, दूसरी का क्यों नहीं। राजनेताओं व उनके परिजनों द्वारा स्थानांतरित जमीन में मालिकाना हक का वितरण किस तरह से हुआ, जमीन को विकसित करने की लागत क्या है और इस अधिग्रहण से राज्य को कुल मिलाकर क्या फायदा होगा।
दुर्भाग्य से, विभिन्न सरकारों ने लगातार नागरिकों के जमीन के अधिकार को कमजोर किया है और बुद्धिजीवियों की पीढ़ी ने इसे समर्थन दिया है। इसका मतलब यह है कि किसान जो चाहते हैं वह उन्हें सिर्फ हिंसक संघर्ष के जरिए ही मिल सकता है और इसमें कुछ किसान मारे भी जा सकते हैं।
चाहे पश्चिम बंगाल हो या उत्तर प्रदेश, या चाहे वामपंथी सरकार हो या जातिवादी सरकार, इसमें अद्भुत समानता है कि सरकारें किस तरह का व्यवहार करती हैं जब उन्हें नागरिकों के ऊपर बिना शर्त ताकत दे दी जाती है।
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