नई दिल्ली [उमेश चतुर्वेदी]। सदियों से कृषि प्रधान देश के तौर पर जाने-जाते रहे देश की सबसे बड़ी विडंबना यही रही है कि जब वोटों की बात आती है तो पूरी की पूरी राजनीति किसानों और गरीबों के नाम पर की जाती है, लेकिन जब नीतिया बनाकर उसे लागू करने का वक्त आता है तो जनता के जरिए चुनी गई अपनी लोकतात्रिक सरकारें भी किसानों के हितों की अनदेखी करने लगती हैं।
प्रेमचंद के गोदान का किसान अपने साथ होने वाले अन्याय का प्रतिकार करने की बजाय इसे अपनी नियति स्वीकार करते हुए पूरी जिंदगी गुजार देता था, लेकिन आज का किसान बदल गया है। अब वह अपनी जमीन के लिए सरकारों तक से लोहा लेता है। कई बार अपना खून बहाने से भी नहीं चूकता। इसका ताजा उदाहरण अलीगढ़ में यमुना एक्सप्रेस-वे के खिलाफ हो रहा हिंसक आदोलन है, जिसमें चार किसानों को अपनी जान गंवानी पड़ी है।
उत्तर प्रदेश में यह पहला मौका नहीं है, जब किसानों ने अपना खून बहाया है। मुआवजे की माग को लेकर इसी साल ग्रेटर नोएडा में भी हिंसक प्रदर्शन हो चुका है। पश्चिम बंगाल के सिंगूर और नंदीग्राम में हिंसक विरोध के बाद यह पहला बड़ा किसान आदोलन है, जिसमें अपनी जमीन के लिए किसानों को अपना खून बहाना पड़ा है।
आखिर किसान इतना उग्र क्यों होता जा रहा है कि उसे खून बहाने से भी हिचक नहीं हो रही है? गंभीरता से ध्यान दिया जाए तो इसके पीछे दो वजहें नजर आती हैं। एक का रिश्ता खेती की पारंपरिक संस्कृति और पारिवारिक भरण-पोषण से है, वहीं दूसरी आज की व्यापार व व्यवसाय प्रधान उदार वैश्विक अर्थव्यवस्था है।
उदारीकृत अर्थव्यवस्था के चलते हमारे शासकों और नीति नियंताओं को विकास की राह सिर्फ व्यावसायिकता के ही जरिये नजर आ रही है। बड़े-बड़े स्पेशल इकोनामिक जोन [सेज] और माल बनाने के लिए जमीनों का अधिग्रहण सरकारों को सबसे आसान काम नजर आ रहा है। जमीनों का अधिग्रहण अति महानगरीय या नगरीय हो चुके दिल्ली-मुंबई जैसे शहरों के आसपास के गावों के किसानों को भले ही चेहरे पर मुस्कान लाने का सबब बनता है, लेकिन हमारे देश का आम किसान आज भी पारंपरिक तौर पर अपनी जमीन से ही प्यार करने वाली मानसिकता का है। उसे लगता है कि अधिग्रहण के बाद जब जमीन उसके हाथ से निकल जाएगी तो उसके सामने भूखे मरने की नौबत आ जाएगी।
वैसे भी नोएडा से अलीगढ़-हाथरस होते हुए आगरा तक के किसानों के पास औसतन एक हेक्टेयर जमीन ही है। इस जमीन के अधिग्रहण के बाद उन्हें भले की एकमुश्त रकम मिल जाए, लेकिन उन्हें पता है कि इतनी कम जमीन होने के बावजूद वे कम से कम भूखे नहीं मर सकते। कुछ यही सोच नंदीग्राम और सिंगूर के किसानों की भी रही है।
तीन साल पहले सेज के खिलाफ महाराष्ट्र के रायगढ़ के किसानों ने जनमत के जरिये प्रस्ताव पारित किया था तो उसके पीछे भी अपनी माटी से बिछुड़ने और अपनी रोजी-रोटी पर भावी संकट की आशका सबसे ज्यादा थी। रायगढ़ में खूनी संघर्ष भले ही नहीं हुआ, लेकिन सिंगूर और नंदीग्राम ने तो भारतीय इतिहास की धारा में नए ढंग से हस्तक्षेप ही कर दिया है, जिसकी आच आज तक महसूस की जा रही है।
यमुना एक्सप्रेस-वे का आदोलन भी कुछ उसी दिशा में जा रहा है। वैसे आज भी अंग्रेजों के बनाए भूमि अधिग्रहण कानून 1894 के ही चलते देशभर में भूमि अधिग्रहण किया जाता है। इसके साथ उसी दौर के 17 दूसरे कानूनों का भी इस सिलसिले में सरकारें इस्तेमाल करती हैं। ये कानून सरकारों को यह आजादी देते हैं कि वे जब चाहें, जैसे चाहें, जहा चाहें जमीन का अधिग्रहण कर सकती हैं।
ब्रिटिश हुकूमत के दौर में सरकार व्यापारियों की रक्षा के लिए इस कानून का इस्तेमाल करती थी और आज हमारी लोकतात्रिक सरकारें इसी कानून की आड़ लेकर कारपोरेट घरानों की लठैत बन गई हैं। इसके तहत सरकार के लिए सिर्फ दो अनिवार्य शर्त है। पहली शर्त भूमि अधिग्रहण से पहले उसे कम से कम दो अखबारों में इसकी सूचना देनी होगी और दूसरी जमीन से बेदखल हो रहे किसानों का पुनर्वास करना होगा, जिसमें जमीन का मूल्य, नई जगह विस्थापन आदि शामिल है।
सबसे बड़ा गड़बड़झाला यह होता है कि सरकारें एक निश्चित दर पर किसानों से जमीनों का अधिग्रहण कर लेती हैं, जो औना-पौना ही होता है। फिर उसे औद्योगिक घरानों और बिल्डरों को ऊंची कीमत या कई बार बाजार भाव पर बेच देती हैं। उत्तर प्रदेश में यमुना एक्सप्रेस-वे के लिए 1550 हेक्टेयर जमीन का अधिग्रहण किया जा रहा है। इसके तहत छह जिलों गौतमबुद्ध नगर, बुलंदशहर, अलीगढ़, महामाया नगर [हाथरस], मथुरा और आगरा के 1187 गावों को यमुना एक्सप्रेस-वे औद्योगिक विकास प्राधिकरण के तहत अधिसूचित किया गया है।
जाहिर है इन गावों की अधिग्रहीत की गई जमीन पर सिर्फ सड़क ही नहीं बनेगी, बल्कि उसके आसपास औद्योगिक केंद्र और कालोनिया भी बसाई जाएंगी। जाहिर है, इन गावों के हजारों लोग या तो विस्थापित होंगे या फिर खेती-बारी से महरूम हो जाएंगे, लेकिन बिडंबना देखिए कि इन गावों के विकास के लिए अभी तक मास्टर प्लान तक नहीं बनाया गया है। खुद इसकी तस्दीक मौजूदा विधानसभा में राज्य की मुख्यमंत्री मायावती ने की है। यहा मुआवजे की दर पहले 121 रुपये प्रति वर्गमीटर की दर से तय की गई और बाद में दबाव देखते हुए इसे 570 रुपये तक किया गया, लेकिन किसानों की माग है कि इसे नोएडा की तरह 880 रुपये प्रति वर्ग मीटर कर दिया जाए। इसी बिंदु पर जाकर मामला गड़बड़ हो गया है।
इन अधिग्रहणों का चाहे लाख विरोध किया जाए, लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि कानूनी तौर पर सरकारें इस विरोध को मानने के लिए बाध्य नहीं है। इस सिलसिले में ग्रामीण विकास मंत्रालय में सचिव रह चुके पूर्व अधिकारी केबी सक्सेना का कहना है कि किसानों के सामने सरकारी मनमानी को सहने और अपनी जमीन से बेदखल होने के अलावा दूसरा और कोई चारा नहीं बचता।
साफ है कि चाहे कितना भी खूनी विरोध क्यों न हो, सरकारी मनमानी के आगे किसान लाचार हैं। व्यापारी चाहे तो दबाव बनाकर किसानों की जमीनें हथिया सकता है और प्रोग्रेसिव होने के नाम पर सरकारें उनके हितों की रक्षा करती रहेंगी। इन अधिग्रहणों से एक और सवाल यह उठता है कि क्या हमारी भोजन की जरूरतें कम हो गई हैं।
आखिर जमीनों के लगातार अधिग्रहण के बाद हर साल बढ़ रही लगभग दो करोड़ की जनसंख्या को कैसे खिलाया जा सकेगा? जबकि औद्योगीकरण और बसावट के लिए खेती योग्य जमीन में 17 प्रतिशत की कमी आ गई है। उत्तर प्रदेश को ही लें, जहा कुल अनाज उत्पादन पिछले कई सालों से सिर्फ चार लाख टन पर ही अटका हुआ है, लेकिन जनसंख्या में बढ़ोतरी जारी है। दिलचस्प बात यह है कि भोजन की शर्त पर हो रहे इस विकास का विरोध सिवा शरद यादव के और कोई राजनेता करता भी नहीं दिख रहा है।
वैसे अधिग्रहणों पर हो रहे खूनी विवादों की तरफ ध्यान देते वक्त हमें एक नजर गुजरात की ओर भी उठाकर देखनी चाहिए। सिंगूर से टाटा को गुजरात जाना पड़ा और वहा अधिग्रहण को लेकर कोई विरोध नहीं हुआ। इसकी एक बड़ी वजह यह रही कि गुजरात में सरकार जमीन अधिग्रहण नहीं करती, बल्कि औद्योगिक घराने खुद ही जमीन तय करते हैं और सीधे किसानों से जमीन खरीदते हैं।
जाहिर है, इसके लिए उन्हें बाजार की दर से कीमत चुकानी पड़ती है, इसलिए विवाद की गुंजाइश कम हो जाती है। अधिग्रहण के पीछे जमीनों का उपजाऊपन भी विवाद की बड़ी वजह बनता है। यह भी तय है कि गुजरात की जमीन से कई गुना उत्तर प्रदेश की जमीन उपजाऊ है। जाहिर है, यहा किसानों की रोजी-रोटी का कहीं बड़ा आधार जमीन ही रही है। और अपनी उपजाऊ माटी को किसान आसानी से छोड़ना नहीं चाहता।
ऐसे में होना तो यही चाहिए कि किसानों के हितों को ध्यान में रखते हुए भूमि अधिग्रहण कानूनों में संशोधन किया जाए। ऐसा कानून संसद के बजट सत्र में राज्यसभा पारित भी कर चुकी है, लेकिन बेहतर होता कि सरकार इसे जल्द से जल्द लोकसभा से भी पारित करवाती ताकि किसानों की कीमत पर विकास की गाड़ी न दौड़ सके। यह हमारे विकास के लिए जितना जरूरी है, उतना ही सामाजिक सद्भाव के लिए।
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