यह आत्महत्या ऐसे नहीं रुकेगी
जय जवान, जय किसान अथवा अन्नदाता देवो भवः जैसे नारों के साथ सत्ता में आने वाली सरकारें किसानों के प्रति हमेशा संवेदनहीन रही हैं। नहीं तो आज प्रत्येक बीस मिनट में एक किसान और कर्ज के कारण सालाना 12,000 किसान आत्महत्या करने को मजबूर नहीं होते! प्रधानमंत्री मोदी पुराने कानूनों को बदलने की बात जरूर कहते हैं, पर एनडीए सरकार के दस माह के कार्यकाल में किसान-विरोधी कानूनों को बदलने का साहस अब तक नहीं दिखा है। अभी उत्तर भारत में हो रही बारिश व ओलावृष्टि से फसलों की हुई बर्बादी ने ही कई किसानों को आत्महत्या के रास्ते पर धकेला है। उत्तर प्रदेश में लगभग एक महीने में 135 किसानों ने आत्महत्या की है। बेमौसम बारिश की वजह से किसानों की 70 प्रतिशत से अधिक फसलें बर्बाद हो चुकी हैं, लेकिन सरकारें अविलंब राहत देने के बजाय नुकसान के आकलन संबंधी आंकड़ों में ही उलझी है।
किसानों की आत्महत्या की बड़ी वजह सरकार की दोषपूर्ण नीति है। अपने यहां प्राकृतिक आपदा के बाद मुआवजे के आकलन की प्रक्रिया बेहद लंबी एवं दोषपूर्ण है। उत्तर प्रदेश में रेवेन्यू मैनुअल, 1940 के अध्याय 26 (कृषि आपदा के मामलों में लगान तथा राजस्व में अनुतोष) के आधार पर क्षेत्रफल का सर्वे किया जाता है। यह किसानों को फसलों का मुआवजा देने के लिए नहीं, बल्कि लगान एवं राजस्व माफ करने के लिए बनाया गया था। इस कानून में प्रावधान है कि सर्वे का आधार खेत न होकर, क्षेत्रफल होगा। क्षेत्रफल के सर्वे के आधार पर किसानों को उनकी फसलों का सही मुआवजा नहीं दिया जा सकता, क्योंकि प्रत्येक खेत का नुकसान अलग होता है।
दिक्कत यह भी है कि किसानों को मुआवजे के रूप में मिलने वाली राशि उनके श्रम की मजदूरी के समकक्ष नहीं होती। वहीं यह प्रक्रिया इतनी लंबी होती है कि किसान आस ही छोड़ देता है। असल में, लेखपाल की रिपोर्ट तहसीलदार, अपर जिलाधिकारी (वित्त एवं राजस्व) और राहत आयुक्त के यहां से होते हुए मुख्य सचिव तक पहुंचती है। मुख्य सचिव इसे मांग पत्र बनाकर मुआवजे की क्षतिपूर्ति हेतु केंद्र के कृषि मंत्रालय को भेजता है। केंद्र सरकार के प्रतिनिधि राज्य के दौरे पर आते हैं। दौरे के बाद उनके साथ कृषि उत्पादन नियंत्रक की बैठक होती है। केंद्रीय दल को अगर नुकसान के प्रतिशत पर आपत्ति होती है, तो दूसरा मांग पत्र केंद्र सरकार को भेजा जाता है। यह मुआवजा तभी मिल पाता है, जब नुकसान का प्रतिशत 50 प्रतिशत से अधिक हो। इस प्रक्रिया से किसानों तक पैसा पहुंचने में दो वर्ष लग जाते हैं, और तब तक कर्ज के कारण किसान या तो जान दे देता है, अथवा अपनी जमीन बेचने को मजबूर होता है।
यदि किसानों की आत्महत्या रोकनी है, तो देश में जलवायु के क्षेत्रों के आधार पर आपदा राहत नीति बनानी होगी। इसमें किसानों की फसलों के नुकसान की भरपाई का आकलन करने के लिए उत्पादन गुणा न्यूनतम समर्थन मूल्य का फॉर्मूला अपनाना चाहिए। जरूरी यह भी है कि बिना किसी देरी के राहत का एक हिस्सा राज्य सरकार को जारी किया जाए और आपदा की स्थिति से निपटने के लिए किसानों के लिए अलग से आकस्मिक निधि बनाई जाए। प्राकृतिक आपदा से निपटने हेतु पुराने कानून को समाप्त कर तत्काल किसान हितैषी नए अध्यादेश लाने की तत्परता अगर सरकार दिखाए, तभी अन्नदाताओं की मौत रुक सकती है।
-लेखक भाकियू के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं
किसानों की आत्महत्या की बड़ी वजह सरकार की दोषपूर्ण नीति है। अपने यहां प्राकृतिक आपदा के बाद मुआवजे के आकलन की प्रक्रिया बेहद लंबी एवं दोषपूर्ण है। उत्तर प्रदेश में रेवेन्यू मैनुअल, 1940 के अध्याय 26 (कृषि आपदा के मामलों में लगान तथा राजस्व में अनुतोष) के आधार पर क्षेत्रफल का सर्वे किया जाता है। यह किसानों को फसलों का मुआवजा देने के लिए नहीं, बल्कि लगान एवं राजस्व माफ करने के लिए बनाया गया था। इस कानून में प्रावधान है कि सर्वे का आधार खेत न होकर, क्षेत्रफल होगा। क्षेत्रफल के सर्वे के आधार पर किसानों को उनकी फसलों का सही मुआवजा नहीं दिया जा सकता, क्योंकि प्रत्येक खेत का नुकसान अलग होता है।
दिक्कत यह भी है कि किसानों को मुआवजे के रूप में मिलने वाली राशि उनके श्रम की मजदूरी के समकक्ष नहीं होती। वहीं यह प्रक्रिया इतनी लंबी होती है कि किसान आस ही छोड़ देता है। असल में, लेखपाल की रिपोर्ट तहसीलदार, अपर जिलाधिकारी (वित्त एवं राजस्व) और राहत आयुक्त के यहां से होते हुए मुख्य सचिव तक पहुंचती है। मुख्य सचिव इसे मांग पत्र बनाकर मुआवजे की क्षतिपूर्ति हेतु केंद्र के कृषि मंत्रालय को भेजता है। केंद्र सरकार के प्रतिनिधि राज्य के दौरे पर आते हैं। दौरे के बाद उनके साथ कृषि उत्पादन नियंत्रक की बैठक होती है। केंद्रीय दल को अगर नुकसान के प्रतिशत पर आपत्ति होती है, तो दूसरा मांग पत्र केंद्र सरकार को भेजा जाता है। यह मुआवजा तभी मिल पाता है, जब नुकसान का प्रतिशत 50 प्रतिशत से अधिक हो। इस प्रक्रिया से किसानों तक पैसा पहुंचने में दो वर्ष लग जाते हैं, और तब तक कर्ज के कारण किसान या तो जान दे देता है, अथवा अपनी जमीन बेचने को मजबूर होता है।
यदि किसानों की आत्महत्या रोकनी है, तो देश में जलवायु के क्षेत्रों के आधार पर आपदा राहत नीति बनानी होगी। इसमें किसानों की फसलों के नुकसान की भरपाई का आकलन करने के लिए उत्पादन गुणा न्यूनतम समर्थन मूल्य का फॉर्मूला अपनाना चाहिए। जरूरी यह भी है कि बिना किसी देरी के राहत का एक हिस्सा राज्य सरकार को जारी किया जाए और आपदा की स्थिति से निपटने के लिए किसानों के लिए अलग से आकस्मिक निधि बनाई जाए। प्राकृतिक आपदा से निपटने हेतु पुराने कानून को समाप्त कर तत्काल किसान हितैषी नए अध्यादेश लाने की तत्परता अगर सरकार दिखाए, तभी अन्नदाताओं की मौत रुक सकती है।
-लेखक भाकियू के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं
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