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यह आत्महत्या ऐसे नहीं रुकेगी
यह आत्महत्या ऐसे नहीं रुकेगी
सोमवार, 6 अप्रैल 2015
चौ. राकेश टिकैत
Updated @ 8:14 PM IST
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जय जवान, जय किसान अथवा अन्नदाता देवो भवः जैसे नारों के साथ सत्ता में आने वाली सरकारें किसानों के प्रति हमेशा संवेदनहीन रही हैं। नहीं तो आज प्रत्येक बीस मिनट में एक किसान और कर्ज के कारण सालाना 12,000 किसान आत्महत्या करने को मजबूर नहीं होते! प्रधानमंत्री मोदी पुराने कानूनों को बदलने की बात जरूर कहते हैं, पर एनडीए सरकार के दस माह के कार्यकाल में किसान-विरोधी कानूनों को बदलने का साहस अब तक नहीं दिखा है। अभी उत्तर भारत में हो रही बारिश व ओलावृष्टि से फसलों की हुई बर्बादी ने ही कई किसानों को आत्महत्या के रास्ते पर धकेला है। उत्तर प्रदेश में लगभग एक महीने में 135 किसानों ने आत्महत्या की है। बेमौसम बारिश की वजह से किसानों की 70 प्रतिशत से अधिक फसलें बर्बाद हो चुकी हैं, लेकिन सरकारें अविलंब राहत देने के बजाय नुकसान के आकलन संबंधी आंकड़ों में ही उलझी है।
किसानों की आत्महत्या की बड़ी वजह सरकार की दोषपूर्ण नीति है। अपने यहां प्राकृतिक आपदा के बाद मुआवजे के आकलन की प्रक्रिया बेहद लंबी एवं दोषपूर्ण है। उत्तर प्रदेश में रेवेन्यू मैनुअल, 1940 के अध्याय 26 (कृषि आपदा के मामलों में लगान तथा राजस्व में अनुतोष) के आधार पर क्षेत्रफल का सर्वे किया जाता है। यह किसानों को फसलों का मुआवजा देने के लिए नहीं, बल्कि लगान एवं राजस्व माफ करने के लिए बनाया गया था। इस कानून में प्रावधान है कि सर्वे का आधार खेत न होकर, क्षेत्रफल होगा। क्षेत्रफल के सर्वे के आधार पर किसानों को उनकी फसलों का सही मुआवजा नहीं दिया जा सकता, क्योंकि प्रत्येक खेत का नुकसान अलग होता है।
दिक्कत यह भी है कि किसानों को मुआवजे के रूप में मिलने वाली राशि उनके श्रम की मजदूरी के समकक्ष नहीं होती। वहीं यह प्रक्रिया इतनी लंबी होती है कि किसान आस ही छोड़ देता है। असल में, लेखपाल की रिपोर्ट तहसीलदार, अपर जिलाधिकारी (वित्त एवं राजस्व) और राहत आयुक्त के यहां से होते हुए मुख्य सचिव तक पहुंचती है। मुख्य सचिव इसे मांग पत्र बनाकर मुआवजे की क्षतिपूर्ति हेतु केंद्र के कृषि मंत्रालय को भेजता है। केंद्र सरकार के प्रतिनिधि राज्य के दौरे पर आते हैं। दौरे के बाद उनके साथ कृषि उत्पादन नियंत्रक की बैठक होती है। केंद्रीय दल को अगर नुकसान के प्रतिशत पर आपत्ति होती है, तो दूसरा मांग पत्र केंद्र सरकार को भेजा जाता है। यह मुआवजा तभी मिल पाता है, जब नुकसान का प्रतिशत 50 प्रतिशत से अधिक हो। इस प्रक्रिया से किसानों तक पैसा पहुंचने में दो वर्ष लग जाते हैं, और तब तक कर्ज के कारण किसान या तो जान दे देता है, अथवा अपनी जमीन बेचने को मजबूर होता है।
यदि किसानों की आत्महत्या रोकनी है, तो देश में जलवायु के क्षेत्रों के आधार पर आपदा राहत नीति बनानी होगी। इसमें किसानों की फसलों के नुकसान की भरपाई का आकलन करने के लिए उत्पादन गुणा न्यूनतम समर्थन मूल्य का फॉर्मूला अपनाना चाहिए। जरूरी यह भी है कि बिना किसी देरी के राहत का एक हिस्सा राज्य सरकार को जारी किया जाए और आपदा की स्थिति से निपटने के लिए किसानों के लिए अलग से आकस्मिक निधि बनाई जाए। प्राकृतिक आपदा से निपटने हेतु पुराने कानून को समाप्त कर तत्काल किसान हितैषी नए अध्यादेश लाने की तत्परता अगर सरकार दिखाए, तभी अन्नदाताओं की मौत रुक सकती है।
-लेखक भाकियू के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं
किसानों की आत्महत्या की बड़ी वजह सरकार की दोषपूर्ण नीति है। अपने यहां प्राकृतिक आपदा के बाद मुआवजे के आकलन की प्रक्रिया बेहद लंबी एवं दोषपूर्ण है। उत्तर प्रदेश में रेवेन्यू मैनुअल, 1940 के अध्याय 26 (कृषि आपदा के मामलों में लगान तथा राजस्व में अनुतोष) के आधार पर क्षेत्रफल का सर्वे किया जाता है। यह किसानों को फसलों का मुआवजा देने के लिए नहीं, बल्कि लगान एवं राजस्व माफ करने के लिए बनाया गया था। इस कानून में प्रावधान है कि सर्वे का आधार खेत न होकर, क्षेत्रफल होगा। क्षेत्रफल के सर्वे के आधार पर किसानों को उनकी फसलों का सही मुआवजा नहीं दिया जा सकता, क्योंकि प्रत्येक खेत का नुकसान अलग होता है।
दिक्कत यह भी है कि किसानों को मुआवजे के रूप में मिलने वाली राशि उनके श्रम की मजदूरी के समकक्ष नहीं होती। वहीं यह प्रक्रिया इतनी लंबी होती है कि किसान आस ही छोड़ देता है। असल में, लेखपाल की रिपोर्ट तहसीलदार, अपर जिलाधिकारी (वित्त एवं राजस्व) और राहत आयुक्त के यहां से होते हुए मुख्य सचिव तक पहुंचती है। मुख्य सचिव इसे मांग पत्र बनाकर मुआवजे की क्षतिपूर्ति हेतु केंद्र के कृषि मंत्रालय को भेजता है। केंद्र सरकार के प्रतिनिधि राज्य के दौरे पर आते हैं। दौरे के बाद उनके साथ कृषि उत्पादन नियंत्रक की बैठक होती है। केंद्रीय दल को अगर नुकसान के प्रतिशत पर आपत्ति होती है, तो दूसरा मांग पत्र केंद्र सरकार को भेजा जाता है। यह मुआवजा तभी मिल पाता है, जब नुकसान का प्रतिशत 50 प्रतिशत से अधिक हो। इस प्रक्रिया से किसानों तक पैसा पहुंचने में दो वर्ष लग जाते हैं, और तब तक कर्ज के कारण किसान या तो जान दे देता है, अथवा अपनी जमीन बेचने को मजबूर होता है।
यदि किसानों की आत्महत्या रोकनी है, तो देश में जलवायु के क्षेत्रों के आधार पर आपदा राहत नीति बनानी होगी। इसमें किसानों की फसलों के नुकसान की भरपाई का आकलन करने के लिए उत्पादन गुणा न्यूनतम समर्थन मूल्य का फॉर्मूला अपनाना चाहिए। जरूरी यह भी है कि बिना किसी देरी के राहत का एक हिस्सा राज्य सरकार को जारी किया जाए और आपदा की स्थिति से निपटने के लिए किसानों के लिए अलग से आकस्मिक निधि बनाई जाए। प्राकृतिक आपदा से निपटने हेतु पुराने कानून को समाप्त कर तत्काल किसान हितैषी नए अध्यादेश लाने की तत्परता अगर सरकार दिखाए, तभी अन्नदाताओं की मौत रुक सकती है।
-लेखक भाकियू के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं
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Monday, April 6, 2015
प्राकृतिक आपदा की फसलों की बर्बादी पर मिलने वाली राहत राशि, नुकसान के आंकलन में विसंगति एवं देरी के कारण दम तोड़ रहा अन्नदाता से किसानों
प्राकृतिक आपदा की फसलों की बर्बादी पर मिलने वाली राहत राशि, नुकसान के आंकलन में विसंगति एवं देरी के कारण दम तोड़ रहा अन्नदाता से किसानों
देश में आजादी के बाद जय जवान, जय किसान, अन्नदाता देवों भवः के नारे के नाम पर देश में बनने वाली सरकारें किसानों के प्रति हमेशा असंवेदनशील रही है। जिसके चलते आज प्रत्येक बीस मिनट में एक किसान आत्महत्या कर लेता है। एक वर्ष में 12000 हजार किसान कर्ज के कारण अपनी जान देते है। 50 प्रतिशत छोटे एवं मझौंले किसान खेती छोड़ने को तैयार है, अगर कोई दूसरा धंधा मिलें। आज खेती घाटे का धंधा साबित हो रही है। जलवायु परिवर्तन के कारण आये वर्ष किसान मौसम की मार झेल रहे है, लेकिन आपदाओं से निपटने हेतु देश व प्रदेश की सरकारों के पास कोई नीति नहीं है। देश के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी द्वारा अप्रसांगिक एवं पुराने कानूनों को बदलने की बात कहीं गयी थी, लेकिन सरकार के दस माह बीत जाने के पश्चात भी किसान विरोधी कानूनों को बदलने का साहस नहीं दिखा पा रहें है। उत्तर भारत में चल रही असमय बारिश व ओलावृष्टि से हुई फसलों की बर्बादी से किसानों को इतना बडा झटका लगा कि किसान इस सदमें को बर्दास्त नहीं कर पाया। उत्तर प्रदेश में ही अन्नदाता की मौत का आंकडा लगभग एक महीने में 135 के आसपास पहुंच गया। तमाम सरकारी आश्वासन व बयानबाजी के बीच मौत का सिलसिला जारी है। इसका मुख्य कारण है कि कई वर्षो से किसान वर्षा, बाढ़, ओलावृष्टि सूखें की मार झेल रहा है, लेकिन सरकारी राहत के नाम पर किसानों को जो राशि प्रदान की जाती है। वह किसानों के साथ घिनौना मजाक है। उत्तर प्रदेश का गन्ना किसान पिछले तीन चार वर्षो से भयानक स्थित के दौर से गुजर रहा है। किसानों की उत्पादन लागत में प्रतिवर्ष वृद्धि हो रही है, लेकिन इसके अनुपात में न तो किसानों को गन्ने का भाव मिल पा रहा है और न ही समय से गन्ना किसानों का भुगतान हो रहा है। पिछले कई वर्षो में लगातार संकट का सामना कर रहे किसान गेहूं, चावल पैदा कर अपनी आजीविका एवं पशुओं के लिए चारे का इंतजाम करता था, लेकिन असमय बारिश ने किसानों को तोड़ दिया है। बेमौसम लगातार चल रही बारिश से किसानों की 70 प्रतिशत से अधिक फसले बर्बाद हो चुकी है, लेकिन सरकारें अविलम्ब राहत देने की बजाए नुकसान का आकलन के आंकडों पर बहस में पडी हुई है। उत्तर प्रदेश की सरकार लगभग 50 प्रतिशत नुकसान का आकलन कर रही है, लेकिन भारत सरकार इस नुकसान को तीन प्रतिशत से अधिक मानकर नहीं चल रही है। इसी बयानबाजी के चलते अन्नदाता दम तोड़ रहा है।
प्राकृतिक आपदा के पश्चात मुआवजे के आंकलन की प्रक्रिया बेहद लम्बी एवं दोषपूर्ण है। उत्तर प्रदेश में रेवेन्यू मैनवुल 1940 के अध्याय 26 में (कृषीय आपदा के मामलों में लगान तथा राजस्व में अनुतोष) के आधार पर क्षेत्रफल का सर्वे किया जाता है। यह कानून किसानों को फसलों का मुआवजा देने के लिए नहीं बल्कि लगान एवं राजस्व माफ करने के लिए बनाया गया था। आज भी इसी कानून के आधार पर सर्वे कराया जाता है। किसानों को यह कानून उन्हें मिलने वाले लाभ से वंचित करता है। इस कानून के आधार पर लेखपाल सर्वे करता है। कानून में स्पष्ट प्रावधान है कि सर्वे का आधार खेत न होकर क्षेत्रफल होगा। क्षेत्रफल के सर्वे के आधार पर किसानों को उनकी फसलों का सहीं मुआवजा नहीं दिया जा सकता। क्योंकि प्रत्येक खेत का नुकसान अलग होता है। यह कानून लगान माफ करने में तो सहायक है, लेकिन मुआवजा दिये जाने में नहीं। उदाहरण के तौर पर अगर एक गांव में अगर तीन किसान खेती करते है तो अगर एक किसान की 100 प्रतिशत फसल नष्ट हो जाती है अगर नुकसान का आकलन गांव के क्षेत्रफल के आधार पर किया जाए तो नुकसान का आंकडा घटकर 33 प्रतिशत हो जाता है। अगर इसका दायरा जिला या राज्य मान लिया जाए तो यहीं आकंडा घटकर 0.33 तक जा सकता है। यह इस कानून की बडी विसंगति है। फसलों की क्षति के आकलन की जिम्मेदारी लेखपाल की होती है, लेखपाल द्वारा खेत के आधार पर सर्वे किया जाना सम्भव नहीं हो पाता है। वहीं दूसरी ओर जान-पहचान, रिश्तेदारी, समय अभाव भी मुआवजे की राशि को प्रभावित करने वाले मुख्य कारक है, लेखपाल को सर्वे की जिम्मेदारी उस समय दी गयी थी जब सरकारी कर्मचारी के तौर लेखपाल की पहुंच गांव स्तर तक की थी। आज के समय सरकारी कर्मचारी के तौर पर सरकार के पास ग्राम विकास अधिकारी, अध्यापक, शिक्षा मित्र, रोजगार सेवक, आशा, आंगनबाडी तमाम कर्मचारी गांव में ही उपलब्ध है। लेखपाल द्वारा आज भी 26 विभाग के लिए कार्य किया जाता है। लेखपाल द्वारा जो मूल्यांकन किया जाता है। वह केवल बातचीत के आधार पर होता है, यह मूल्यांकन लेखपाल का नजरी मूल्यांकन भी नहीं होता है। लेखपाल के सर्वे में जान-पहचान, रिश्तेदारी एवं भ्रष्टाचार से भी सर्वे को प्रभावित किया जाता है।
धनराशि की मांग करते समय लेखपाल उसका मूल्यांकन उत्पादन लागत एवं उत्पादन के आधार पर नहीं होता। भारत सरकार द्वारा निर्धारित दरों के आधार पर किसान को मुआवजा तय किया जाता है। मुआवजा दिये जाने का यह खेल हास्यपद स्थिति में आ गया है। किसानों को मुआवजे के रूप में मिलने वाली यह धनराशि किसान के श्रम की मजदूरी के समकक्ष भी नहीं होती। यह प्रक्रिया इतनी लम्बी होती है कि किसान राहत की आश ही छोड़ देता है। लेखपाल की रिपोर्ट को तहसीलदार, अपरजिलाधिकारी (वित्त एवं राजस्व) को देता है। अपर जिलाधिकारी धनराशि की मांग राहत आयुक्त के यहां भेजता है। प्रदेश के प्रभावित जनपदों की सूची के साथ यह रिपोर्ट राहत आयुक्त के यहां से मुख्यसचिव को भेजी जाती है। मुख्यसचिव द्वारा मांग पत्र बनाकर मुआवजे की क्षतिपूर्ति हेतु कृषि मंत्रालय भारत सरकार को भेजता है। भारत सरकार रिपोर्ट प्राप्ति के बाद जिसकी कोई समय सीमा नहीं है राज्य का दौरा करता है। दौरा करने के बाद केन्द्रीय दल के साथ कृषि उत्पादन नियन्त्रक की बैठक होती है। केन्द्रीय दल को अगर नुकसान के प्रतिशत पर आपत्ति होती है तो दूसरा मांग पत्र भारत सरकार को भेजा जाता है। यह मुआवजा तभी मिल पाता है जब नुकसान का प्रतिशत 50 प्रतिशत से अधिक हो।
कृषि मंत्रालय मुआवजे की धनराशि का प्रस्ताव वित्तमंत्रालय को भेजता है। वित्तमंत्रालय धनराशि को स्वीकृत कर गृहमंत्रालय को भेजता है। गृहमंत्रालय द्वारा यह धनराशि राज्यों के राहत आयुक्त को भेजी जाती है। वहां से यह धनराशि जनपद में जाती है। इसके बाद तहसील स्तर पर इसका वितरण किया जाता है। इस प्रक्रिया से स्पष्ट है कि किसान तक पैसा पहुंचने में दो वर्ष लग जाते है। जब तक कर्ज के कारण किसान जान दे देता है अन्यथा उसकी जमीन की नीलामी हो जाती है। इस प्रक्रिया में अधिकतर लघु किसान प्रभावित होते है। वर्तमान में चल रही असमय बारिश और ओलावृष्टि से अकेले उत्तर प्रदेश में 25 हजार करोड के लगभग किसानों की फसलों को हानि हुई है। किसान का खाद्य फसलों मंे लगभग 40 हजार प्रतिहेक्टेयर एवं दलहन में 30 हजार रुपये प्रतिहेक्टेयर का कृंिष निवेश हुआ है, लेकिन भारत सरकार के गृहमंत्रालय के एस.डी.आर.एफ. शाखा के शासनादेश 31 मार्च 2013 के आधार पर किसानों को प्राकृतिक आपदा से नष्ट फसलों का मुआवजा अगर नुकसान 50 प्रतिशत से अधिक है तो 9 हजार रुपये प्रति हेक्टेयर सिंचित और 4500 रुपये प्रति हेक्टेयर असिंचित क्षेत्र में दिया जायेगा। किसान की मृत्यु की दशा में डेढ लाख रुपये का मुआवजा दिया जाएगा। जो किसानों के नुकसान की भरपाई करने में ‘‘ऊंट के मुंह में जीरा’’ साबित हो रहा है। तमाम खामियों एवं विसंगतियों के चलते किसान को देश व राज्य की सरकारे यह आश्वस्त नहीं कर पर रहीं है कि उनके नुकसान की उचित भरपाई की जाएगी। इसी के चलते अकेले उत्तर प्रदेश में 135 से अधिक किसानों की मौत सदमें या आत्महत्या करने से हो चुकी है। उत्तर प्रदेश में यह सिलसिला लगातार जारी है। किसान आत्महत्या न करें इस सम्बंध में न तो देश के प्रधानमंत्री जी और न ही किसी राज्य के मुख्यमंत्री ने आगे बढ़कर किसान के जख्मों पर मरहम लगाने का कार्य नहीं किया है। अब प्रश्न यह उठता है कि अन्नदाता के प्रति देश एवं राज्य की सरकारे इतनी संवेदनहीन हो गई है। राज्य सरकारें फोरी राहत के तौर पर कर्जाे की वसूली पर रोक लगाने, फसली ऋण का ब्याज माफ किये जाने जैसी छोटी-मोटी घोषणाएं भी कर सकती थी।
आज वैज्ञानिक युग में मंगल गृह तक पहुंचने का दावा करने वाली सरकारें किसान की फसलों का नुकसान 24 घंटे के अन्दर सेटेलाईट या रिमोर्ट सेंनसिंग से नहीं करा सकते?
अगर देश में आत्महत्या को रोकना है तो देश में जलवायु के क्षेत्रों के आधार पर आपदा राहत नीति बनायी जाने की अत्यन्त आवश्यकता है। जिसमें किसानों की फसलों के नुकसान की भरपाई का आकलन करने के लिए उत्पादन गुणा न्यूनतम समर्थन मूल्य का फार्मूला अपनाना चाहिए। बिना किसी देरी के राहत का एक हिस्सा राज्य सरकार को जारी किया जाने का प्रावधान किया जाना आवश्यक है। आपदा की स्थिति से निपटने के लिए किसानों के लिए अलग से आकस्मिक निधि का बनाया जाना भी आवश्यक है। आखिर इस तरह के कानूनों की आड़ में कब तक किसानों से खिलवाड होता रहेगा? पिछले 2003 से 2010 तक बुन्देलखण्ड का किसान सूखे की मार झेलता रहा, लेकिन सरकारों ने उनकी कोई सुध नहीं ली। बुन्देलखण्ड पैकेज भी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया। 2013 में उत्तराखण्ड में आयी त्रादसी से बाढ़ के कारण उत्तर प्रदेश के 10-15 जनपदों की फसलें प्रभावित हुई। 2014 में उत्तर प्रदेश के किसानों को सूखे का सामना करना पड़ा। प्रत्येक वर्ष नदियों के पास के गांव मंे धारा बदलने से सैकडों गांव की फसलें बर्बाद हो जाती है, लेकिन आज तक किसानों को उचित मुआवजा दिये जाने का प्रयास तक नहीं किया गया। हाल में ही आयी असमय बारिश और ओलावृष्टि किसानों पर कहर बनकर टूटी जिससे किसान बर्दाश्त नहीं कर पाया। कर्ज के भार के तले दबे किसानों ने मौत को गले लगा लिया। यह सिलसिला घटने की बजाए बडा आकार लेता चला गया। इसका मुख्य कारण कर्ज चुकाने को लेकर भी है जिस घटियापूर्ण तरीके से सरकारी एवं निजी ऋण की वसूली की जाती है उसकी चिंता से भी किसान दम तोड़ रहा है।
देश में कई तरह की फसल बीमा योजना भी चलायी गई है, लेकिन हजारों करोड़ रुपये का प्रीमियम लेने के बाद भी किसानों के नुकसान की भरपाई करने में असफल साबित हुई है। जिसकी बडी खामी किसान को इकाई न मानना है। भारत विभिन्न जलवायु का देश है। देश व्यापी कोई भी योजना भारत में सफल नहीं हो सकती है।
आज के समय देश व राज्य की सरकारों को किसानों की संवेदना को समझते हुए तत्कालिक प्राकृतिक आपदा से निपटने हेतु पुराने कानून को समाप्त कर किसान हितेषी नया कानून बनाकर उस पर अध्यादेश लाये जाने की आवश्यकता है। अन्यथा अन्नदाता की मौत का सिलसिला यूं ही रूकने वाला नहीं है।
लेखक
चै. राकेश टिकैत
(राष्ट्रीय प्रवक्ता भाकियू)
मो.ः-09219666799
देश में आजादी के बाद जय जवान, जय किसान, अन्नदाता देवों भवः के नारे के नाम पर देश में बनने वाली सरकारें किसानों के प्रति हमेशा असंवेदनशील रही है। जिसके चलते आज प्रत्येक बीस मिनट में एक किसान आत्महत्या कर लेता है। एक वर्ष में 12000 हजार किसान कर्ज के कारण अपनी जान देते है। 50 प्रतिशत छोटे एवं मझौंले किसान खेती छोड़ने को तैयार है, अगर कोई दूसरा धंधा मिलें। आज खेती घाटे का धंधा साबित हो रही है। जलवायु परिवर्तन के कारण आये वर्ष किसान मौसम की मार झेल रहे है, लेकिन आपदाओं से निपटने हेतु देश व प्रदेश की सरकारों के पास कोई नीति नहीं है। देश के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी द्वारा अप्रसांगिक एवं पुराने कानूनों को बदलने की बात कहीं गयी थी, लेकिन सरकार के दस माह बीत जाने के पश्चात भी किसान विरोधी कानूनों को बदलने का साहस नहीं दिखा पा रहें है। उत्तर भारत में चल रही असमय बारिश व ओलावृष्टि से हुई फसलों की बर्बादी से किसानों को इतना बडा झटका लगा कि किसान इस सदमें को बर्दास्त नहीं कर पाया। उत्तर प्रदेश में ही अन्नदाता की मौत का आंकडा लगभग एक महीने में 135 के आसपास पहुंच गया। तमाम सरकारी आश्वासन व बयानबाजी के बीच मौत का सिलसिला जारी है। इसका मुख्य कारण है कि कई वर्षो से किसान वर्षा, बाढ़, ओलावृष्टि सूखें की मार झेल रहा है, लेकिन सरकारी राहत के नाम पर किसानों को जो राशि प्रदान की जाती है। वह किसानों के साथ घिनौना मजाक है। उत्तर प्रदेश का गन्ना किसान पिछले तीन चार वर्षो से भयानक स्थित के दौर से गुजर रहा है। किसानों की उत्पादन लागत में प्रतिवर्ष वृद्धि हो रही है, लेकिन इसके अनुपात में न तो किसानों को गन्ने का भाव मिल पा रहा है और न ही समय से गन्ना किसानों का भुगतान हो रहा है। पिछले कई वर्षो में लगातार संकट का सामना कर रहे किसान गेहूं, चावल पैदा कर अपनी आजीविका एवं पशुओं के लिए चारे का इंतजाम करता था, लेकिन असमय बारिश ने किसानों को तोड़ दिया है। बेमौसम लगातार चल रही बारिश से किसानों की 70 प्रतिशत से अधिक फसले बर्बाद हो चुकी है, लेकिन सरकारें अविलम्ब राहत देने की बजाए नुकसान का आकलन के आंकडों पर बहस में पडी हुई है। उत्तर प्रदेश की सरकार लगभग 50 प्रतिशत नुकसान का आकलन कर रही है, लेकिन भारत सरकार इस नुकसान को तीन प्रतिशत से अधिक मानकर नहीं चल रही है। इसी बयानबाजी के चलते अन्नदाता दम तोड़ रहा है।
प्राकृतिक आपदा के पश्चात मुआवजे के आंकलन की प्रक्रिया बेहद लम्बी एवं दोषपूर्ण है। उत्तर प्रदेश में रेवेन्यू मैनवुल 1940 के अध्याय 26 में (कृषीय आपदा के मामलों में लगान तथा राजस्व में अनुतोष) के आधार पर क्षेत्रफल का सर्वे किया जाता है। यह कानून किसानों को फसलों का मुआवजा देने के लिए नहीं बल्कि लगान एवं राजस्व माफ करने के लिए बनाया गया था। आज भी इसी कानून के आधार पर सर्वे कराया जाता है। किसानों को यह कानून उन्हें मिलने वाले लाभ से वंचित करता है। इस कानून के आधार पर लेखपाल सर्वे करता है। कानून में स्पष्ट प्रावधान है कि सर्वे का आधार खेत न होकर क्षेत्रफल होगा। क्षेत्रफल के सर्वे के आधार पर किसानों को उनकी फसलों का सहीं मुआवजा नहीं दिया जा सकता। क्योंकि प्रत्येक खेत का नुकसान अलग होता है। यह कानून लगान माफ करने में तो सहायक है, लेकिन मुआवजा दिये जाने में नहीं। उदाहरण के तौर पर अगर एक गांव में अगर तीन किसान खेती करते है तो अगर एक किसान की 100 प्रतिशत फसल नष्ट हो जाती है अगर नुकसान का आकलन गांव के क्षेत्रफल के आधार पर किया जाए तो नुकसान का आंकडा घटकर 33 प्रतिशत हो जाता है। अगर इसका दायरा जिला या राज्य मान लिया जाए तो यहीं आकंडा घटकर 0.33 तक जा सकता है। यह इस कानून की बडी विसंगति है। फसलों की क्षति के आकलन की जिम्मेदारी लेखपाल की होती है, लेखपाल द्वारा खेत के आधार पर सर्वे किया जाना सम्भव नहीं हो पाता है। वहीं दूसरी ओर जान-पहचान, रिश्तेदारी, समय अभाव भी मुआवजे की राशि को प्रभावित करने वाले मुख्य कारक है, लेखपाल को सर्वे की जिम्मेदारी उस समय दी गयी थी जब सरकारी कर्मचारी के तौर लेखपाल की पहुंच गांव स्तर तक की थी। आज के समय सरकारी कर्मचारी के तौर पर सरकार के पास ग्राम विकास अधिकारी, अध्यापक, शिक्षा मित्र, रोजगार सेवक, आशा, आंगनबाडी तमाम कर्मचारी गांव में ही उपलब्ध है। लेखपाल द्वारा आज भी 26 विभाग के लिए कार्य किया जाता है। लेखपाल द्वारा जो मूल्यांकन किया जाता है। वह केवल बातचीत के आधार पर होता है, यह मूल्यांकन लेखपाल का नजरी मूल्यांकन भी नहीं होता है। लेखपाल के सर्वे में जान-पहचान, रिश्तेदारी एवं भ्रष्टाचार से भी सर्वे को प्रभावित किया जाता है।
धनराशि की मांग करते समय लेखपाल उसका मूल्यांकन उत्पादन लागत एवं उत्पादन के आधार पर नहीं होता। भारत सरकार द्वारा निर्धारित दरों के आधार पर किसान को मुआवजा तय किया जाता है। मुआवजा दिये जाने का यह खेल हास्यपद स्थिति में आ गया है। किसानों को मुआवजे के रूप में मिलने वाली यह धनराशि किसान के श्रम की मजदूरी के समकक्ष भी नहीं होती। यह प्रक्रिया इतनी लम्बी होती है कि किसान राहत की आश ही छोड़ देता है। लेखपाल की रिपोर्ट को तहसीलदार, अपरजिलाधिकारी (वित्त एवं राजस्व) को देता है। अपर जिलाधिकारी धनराशि की मांग राहत आयुक्त के यहां भेजता है। प्रदेश के प्रभावित जनपदों की सूची के साथ यह रिपोर्ट राहत आयुक्त के यहां से मुख्यसचिव को भेजी जाती है। मुख्यसचिव द्वारा मांग पत्र बनाकर मुआवजे की क्षतिपूर्ति हेतु कृषि मंत्रालय भारत सरकार को भेजता है। भारत सरकार रिपोर्ट प्राप्ति के बाद जिसकी कोई समय सीमा नहीं है राज्य का दौरा करता है। दौरा करने के बाद केन्द्रीय दल के साथ कृषि उत्पादन नियन्त्रक की बैठक होती है। केन्द्रीय दल को अगर नुकसान के प्रतिशत पर आपत्ति होती है तो दूसरा मांग पत्र भारत सरकार को भेजा जाता है। यह मुआवजा तभी मिल पाता है जब नुकसान का प्रतिशत 50 प्रतिशत से अधिक हो।
कृषि मंत्रालय मुआवजे की धनराशि का प्रस्ताव वित्तमंत्रालय को भेजता है। वित्तमंत्रालय धनराशि को स्वीकृत कर गृहमंत्रालय को भेजता है। गृहमंत्रालय द्वारा यह धनराशि राज्यों के राहत आयुक्त को भेजी जाती है। वहां से यह धनराशि जनपद में जाती है। इसके बाद तहसील स्तर पर इसका वितरण किया जाता है। इस प्रक्रिया से स्पष्ट है कि किसान तक पैसा पहुंचने में दो वर्ष लग जाते है। जब तक कर्ज के कारण किसान जान दे देता है अन्यथा उसकी जमीन की नीलामी हो जाती है। इस प्रक्रिया में अधिकतर लघु किसान प्रभावित होते है। वर्तमान में चल रही असमय बारिश और ओलावृष्टि से अकेले उत्तर प्रदेश में 25 हजार करोड के लगभग किसानों की फसलों को हानि हुई है। किसान का खाद्य फसलों मंे लगभग 40 हजार प्रतिहेक्टेयर एवं दलहन में 30 हजार रुपये प्रतिहेक्टेयर का कृंिष निवेश हुआ है, लेकिन भारत सरकार के गृहमंत्रालय के एस.डी.आर.एफ. शाखा के शासनादेश 31 मार्च 2013 के आधार पर किसानों को प्राकृतिक आपदा से नष्ट फसलों का मुआवजा अगर नुकसान 50 प्रतिशत से अधिक है तो 9 हजार रुपये प्रति हेक्टेयर सिंचित और 4500 रुपये प्रति हेक्टेयर असिंचित क्षेत्र में दिया जायेगा। किसान की मृत्यु की दशा में डेढ लाख रुपये का मुआवजा दिया जाएगा। जो किसानों के नुकसान की भरपाई करने में ‘‘ऊंट के मुंह में जीरा’’ साबित हो रहा है। तमाम खामियों एवं विसंगतियों के चलते किसान को देश व राज्य की सरकारे यह आश्वस्त नहीं कर पर रहीं है कि उनके नुकसान की उचित भरपाई की जाएगी। इसी के चलते अकेले उत्तर प्रदेश में 135 से अधिक किसानों की मौत सदमें या आत्महत्या करने से हो चुकी है। उत्तर प्रदेश में यह सिलसिला लगातार जारी है। किसान आत्महत्या न करें इस सम्बंध में न तो देश के प्रधानमंत्री जी और न ही किसी राज्य के मुख्यमंत्री ने आगे बढ़कर किसान के जख्मों पर मरहम लगाने का कार्य नहीं किया है। अब प्रश्न यह उठता है कि अन्नदाता के प्रति देश एवं राज्य की सरकारे इतनी संवेदनहीन हो गई है। राज्य सरकारें फोरी राहत के तौर पर कर्जाे की वसूली पर रोक लगाने, फसली ऋण का ब्याज माफ किये जाने जैसी छोटी-मोटी घोषणाएं भी कर सकती थी।
आज वैज्ञानिक युग में मंगल गृह तक पहुंचने का दावा करने वाली सरकारें किसान की फसलों का नुकसान 24 घंटे के अन्दर सेटेलाईट या रिमोर्ट सेंनसिंग से नहीं करा सकते?
अगर देश में आत्महत्या को रोकना है तो देश में जलवायु के क्षेत्रों के आधार पर आपदा राहत नीति बनायी जाने की अत्यन्त आवश्यकता है। जिसमें किसानों की फसलों के नुकसान की भरपाई का आकलन करने के लिए उत्पादन गुणा न्यूनतम समर्थन मूल्य का फार्मूला अपनाना चाहिए। बिना किसी देरी के राहत का एक हिस्सा राज्य सरकार को जारी किया जाने का प्रावधान किया जाना आवश्यक है। आपदा की स्थिति से निपटने के लिए किसानों के लिए अलग से आकस्मिक निधि का बनाया जाना भी आवश्यक है। आखिर इस तरह के कानूनों की आड़ में कब तक किसानों से खिलवाड होता रहेगा? पिछले 2003 से 2010 तक बुन्देलखण्ड का किसान सूखे की मार झेलता रहा, लेकिन सरकारों ने उनकी कोई सुध नहीं ली। बुन्देलखण्ड पैकेज भी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया। 2013 में उत्तराखण्ड में आयी त्रादसी से बाढ़ के कारण उत्तर प्रदेश के 10-15 जनपदों की फसलें प्रभावित हुई। 2014 में उत्तर प्रदेश के किसानों को सूखे का सामना करना पड़ा। प्रत्येक वर्ष नदियों के पास के गांव मंे धारा बदलने से सैकडों गांव की फसलें बर्बाद हो जाती है, लेकिन आज तक किसानों को उचित मुआवजा दिये जाने का प्रयास तक नहीं किया गया। हाल में ही आयी असमय बारिश और ओलावृष्टि किसानों पर कहर बनकर टूटी जिससे किसान बर्दाश्त नहीं कर पाया। कर्ज के भार के तले दबे किसानों ने मौत को गले लगा लिया। यह सिलसिला घटने की बजाए बडा आकार लेता चला गया। इसका मुख्य कारण कर्ज चुकाने को लेकर भी है जिस घटियापूर्ण तरीके से सरकारी एवं निजी ऋण की वसूली की जाती है उसकी चिंता से भी किसान दम तोड़ रहा है।
देश में कई तरह की फसल बीमा योजना भी चलायी गई है, लेकिन हजारों करोड़ रुपये का प्रीमियम लेने के बाद भी किसानों के नुकसान की भरपाई करने में असफल साबित हुई है। जिसकी बडी खामी किसान को इकाई न मानना है। भारत विभिन्न जलवायु का देश है। देश व्यापी कोई भी योजना भारत में सफल नहीं हो सकती है।
आज के समय देश व राज्य की सरकारों को किसानों की संवेदना को समझते हुए तत्कालिक प्राकृतिक आपदा से निपटने हेतु पुराने कानून को समाप्त कर किसान हितेषी नया कानून बनाकर उस पर अध्यादेश लाये जाने की आवश्यकता है। अन्यथा अन्नदाता की मौत का सिलसिला यूं ही रूकने वाला नहीं है।
लेखक
चै. राकेश टिकैत
(राष्ट्रीय प्रवक्ता भाकियू)
मो.ः-09219666799
Thursday, April 2, 2015
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http://www.livemint.com/Politics/zA0cFxf2z0qcsBW5tzx5oO/Govt-panel-seeks-MSP-revamp-safety-net-to-mitigate-risks-to.html
http://www.frontline.in/cover-story/failing-the-farmer/article7048102.ece
http://www.tribuneindia.com/news/nation/treat-farmer-as-skilled-worker-central-panel/60745.html
http://www.aljazeera.com/programmes/listeningpost/2015/03/indian-media-rural-blind-spot-150328113614448.html
http://www.frontline.in/cover-story/failing-the-farmer/article7048102.ece
http://www.tribuneindia.com/news/nation/treat-farmer-as-skilled-worker-central-panel/60745.html
http://www.aljazeera.com/programmes/listeningpost/2015/03/indian-media-rural-blind-spot-150328113614448.html
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